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इस कृषि क्रांति से सावधान !

देविंदर शर्मा
वह सब जो हाल में पढ़ा, अगर सच है तो चौथी हरित क्रांति मौजूदा कृषि व्यवस्था की शक्ल बदल देगी. परिष्कृत कृषि तकनीकें, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सहित रोबोटिक्स, डिजिटल तकनीक और सिंथेटिक भोजन इत्यादि है, आखिरकार भोजन प्रणाली के केंद्रीयकरण एवं नियंत्रण बनाने की ओर ले जाने वाली हैं. सकारात्मक पक्ष देखें तो यह सारी संभावनाएं उत्साहित करती हैं लेकिन इसका नकारात्मक पहलू बताता है कि अगर हालात ऐसे बने तो किसान भी विलुप्त होती प्रजातियों में शामिल हो जाएगा.

ब्रिटेन की क्रैनफील्ड यूनिवर्सिटी के डेविड क्रिश्चियन रोज़ और साथियों का कहना है- ‘कृषि में नूतन खोजकर्ताओं के मौजूदा दावे भविष्यवाणी कर रहे हैं कि हम एक नई वैश्विक कृषि क्रांति के मुहाने पर हैं’.

जिस तकनीक केंद्रित व्यवस्था के छा जाने की प्रतीक्षा दुनिया को है, डेविड और साथियों ने उसके परिणाम में खाद्य प्रणाली को होने वाले नफा-नुकसान का अध्ययन किया है. कनाडा स्थित एक गैर-मुनाफा अनुसंधान संस्था ईटीसी ग्रुप द्वारा तैयार ‘फूड बैरॉन्स 2022’ नामक एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि यह नया रूपांतरण किस कदर भयावह हो सकता है.

मौजूदा तृतीय कृषि क्रांति 3.0 के आगे की चाल इतनी तेज है कि यह इंसानी कदमताल से बाहर है. तेजी से बढ़ती वैश्विक जनसंख्या का पेट भरने में सक्षम होने का दावा कर रही यह नई कृषि क्रांति 4.0 यांत्रिकीकरण पर पूरी तरह से निर्भर है.

ये शब्द ठीक वही हैं, जो पहले की तीन कृषि क्रांतियों से पूर्व भी कहे गए थे. वर्ष 1950-60 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति के समय भी अधिक पैदावार देने वाली फसलें, खाद, कीटनाशक एवं अधिक यांत्रिकीकरण के फायदे गिनाए थे, किंतु इसने दुनिया को खंडित भोजन प्रणाली दे डाली.

ऐसे वक्त पर, जब दुनिया मौसम परिवर्तन के आपातकाल से जूझ रही है, ‘नेचर फूड’ द्वारा किया अध्ययन दर्शाता है कि कुल वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 34 फीसदी के लिए कृषि गतिविधियां उत्तरदायी हैं, इसके अलावा कुल उत्पादित एवं प्रसंस्कृत भोज्य पदार्थों का तीसरा हिस्सा अंततः गढ्ढों में फेंका जा रहा है.

यदि भोज्य पदार्थों की बर्बादी को एक देश की तरह इकाई माना जाए, तो कुल वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन बढ़ाने वालों में इसका स्थान तीसरा होगा. यदि हरित क्रांति के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव चौंकाने वाले हैं तो पहले इस खंडित व्यवस्था को दुरूस्त करना चुनौती है.

लेकिन नवउद्यम-पूंजीपति निवेशक नई परिष्कृत कृषि तकनीकों में पैसा लगा रहे हैं, एक नई कृषि दुनिया बनाई जा रही है. कुछ उद्योगपति कह रहे हैं कि वे ‘भूमि रहित कृषि उत्पादन उद्योग’ का सृजन कर रहे हैं. यानी भोजन का उत्पादन अब फैक्टरियों में जमीन और किसान के बगैर होगा.

अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद में खाद्य उद्योग का हिस्सा 1 ट्रिलियन डॉलर है, समझा जा सकता है कि क्यों खाद्य-उद्योगपति नई व्यवस्था बनाने में जोर लगा रहे हैं कि ताकि मनमाना मुनाफा कमाया जा सके.

पहले ही, अमेरिकी भोजन उत्पाद व्यवस्था में खाद्य-उद्योगपति बड़े खिलाड़ी हैं, लेकिन यह पाकर कि भोजन पैदा करने की लागत बहुत अधिक है- प्रत्येक 1 डॉलर मूल्य का भोजन तैयार करने के पीछे 3 डॉलर मूल्य का प्राकृतिक स्रोत खपत होता है- उनके लिए टिकाऊ इंतजामों के जरिए अपनी बचत बढ़ाना लाजिमी बन गया है. भूमि इस्तेमाल बिना भविष्य का परिष्कृत कृषि उद्योग बनाने वालों का दावा है कि इससे जैव-विविधता बहाली और प्रकृति-पुनरुद्धार होगा.

3-डी प्रिंटिंग तकनीक से स्नैक्स बनाना, लैबोरेटरी-उत्पादित मांस और वर्टिकल फार्मिंग योजनाकारों को राजनीतिक-आर्थिक समर्थन मिल रहा है. ये तकनीकें भारी निवेश आकर्षित कर रही हैं. इन नई तकनीकों के प्रभाव, सामाजिक पहलू पर बहस करवाए बिना ये चुनौतियां पार्श्व में चली जाएंगी.

चूंकि खरबपति राजनीति पर नियंत्रण करते हैं और अपना एजेंडा चलवाने में भी समर्थ होते हैं, ऐसे में यदि उन्होंने पहले ही बड़ी मात्रा में निवेश कर डाला तो इस विषय पर कोई फैसला वापस लेना बहुत मुश्किल हो जाएगा.

चंद खाद्य-उद्योगपतियों के हाथ में बहुत ज्यादा ताकत केंद्रित होने की वजह से उनको समाज के नियंत्रण में लाने में मुश्किल होगी. आखिर तकनीक विज्ञान समाज के लिए है. भोजन का उत्पादन कैसे हो, मुख्य उत्पादक और उपभोक्ता का फायदा किस में है, इसके नियंत्रण का अधिकार समाज के हाथ में बना रहे.

यह जानते हुए कि असली लड़ाई आगे ‘दांव लगाने वालों’ और ‘मौजूदा हितधारकों’ के बीच रहेगी, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि नई तकनीकी खोजों का परिचालन सामाजिक उत्तरदायित्व के पैमानों के भीतर बनाया जाए. इस दिशा में सार्वजनिक हित नीतियों में सुधार किया जाए.

प्रत्येक कृषि क्रांति बहुत से वादों के साथ शुरुआत करती है. कृषि क्रांति 4.0 पिछले बदलावों से इसलिए अलग है कि उपलब्ध डाटा का इस्तेमाल (या मनगढ़ंत बनाकर) कर यकीन दिलवा रही है कि इससे वास्तव में औद्योगिक खाद्य मूल्य संवर्धन श्रृंखला सुदृढ़ बनेगी.

जैसे-जैसे बड़े खिलाड़ियों के हाथ में तकनीक आधारित खाद्य श्रृंखला केंद्रित होती जाएगी, वैसे-वैसे भोजन के साथ हमारा रूमानी रिश्ता, खासकर रिवायती भोजन से, टूटता जाएगा. क्या व कैसे पैदा करना है, यह तय करने की शक्ति तकनीकी कंपनियों के हाथ में होगी. विज्ञापनों के जरिए लोगों को स्वाद बदलने या नई खाद्य आदतें पैदा करने के लिए लोगों को आसानी से बरगलाया जा सकता है.

खाद्य पौष्टिकता विशेषज्ञ ऋतुजा दिवेकर ने एक दिन ट्वीट किया- ‘मैं टीवी पर पाकिस्तान बनाम न्यूज़ीलैंड देख रही थी, और तीन चीज़ें सीखीं- पहली, खुश रहने के लिए हर बच्चे का नूड्ल्स खाना जरूरी है. दो, औरतों को आकर्षित करने के इच्छुक हर मर्द का डिओडोरेंट इस्तेमाल करना आवश्यक है. तीसरी, सफल लोग दारू पीते हैं (लेकिन चतुराई से इनका विज्ञापन सोडा या बोतलबंद पानी के रूप में किया जाता है’. क्योंकि मशहूर हस्तियां ऐसे संदिग्ध विज्ञापनों के जरिए वस्तु को प्रचारित करने को मान जाती हैं, ऐसे में जन मानस पर छाप डालना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है.

कृषि क्रांति 4.0 का उद्भव किस तरह किसानों, खेत मजदूरों के अधिकार हड़प लेगा, इसका निदान वक्त पर छोड़ना नादानी होगी. चूंकि तकनीकी खोजें अनुमानित गति से तेज चल रही हैं, करोड़ों की संख्या में छोटे किसानों, मछलीपालक, पशुपालकों और खेत मजदूरों को इनके इस्तेमाल के लिए शिक्षित करना एक बहुत बड़ा काम होगा. सिविल सोसाइटी और बुद्धिजीवियों पर बड़ी जिम्मेवारी आन पड़ी है. यही भूमिका उपभोक्ता की भी है. अगली कृषि क्रांति किस दिशा में जा रही है, बतौर एक उपभोक्ता हमें सजग रहने की जरूरत है.

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