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अपने उतार पर है पानी

सुनील चतुर्वेदी | फेसबुक
बात 1985 की है. यह साल भू-जल वैज्ञानिक के रूप में मेरे काम का शुरुआती साल था. मध्यप्रदेश के राजगढ़ ज़िले के गावों में मुझे ट्यूबवेल खनन के लिए जियोफ़िज़िकल सर्वे कर वो जगह चिन्हित करनी थी जहां पानी हो.

यह किताबों से बाहर ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू होने और सीखने के दिन थे. मैं मुस्तेदी से अपने काम में जुट गया.

गाँव में जब पहुँचता तो कच्चे मकानों की दीवारों पर गेरू से दो नारे ज़रूर लिखें मिलते-“कुएँ-बावड़ी का छोड़ो साथ, हेंडपम का थामो हाथ” और दूसरा “गुरु करो जान, पानी पियो छान.”

एक पानी के स्रोत के लिए और दूसरा पानी की स्वच्छता को लेकर. असल में यह नारे इसलिए लिखे गये थे कि राजगढ़ एशिया का सर्वाधिक नारू रोग से ग्रस्त ज़िला था. यहाँ कुएँ बावड़ियों को बंद किया जा रहा था और पेयजल के लिए गाँव-गाँव ट्यूबवेल खोदे जा रहे थे.

उस दौर में यानि आज से लगभग 39 साल पहले यदि हमें पानी की तलाश में 100 फुट से गहरे जाना पड़ता तो हम आश्चर्य से भर जाते. बाप रे ! इस गाँव में तो 120 फुट नीचे पानी मिला. ट्यूबवेल होते रहे और अगले चार सालों में क़रीब 300 फुट गहरे ट्यूबवेल सामान्य हो गया.

इसके 15-17 साल पीछे जाऊँ तो बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में जब अपनी दादी के साथ अपने गाँव से रिश्तेदारी में दूसरे गाँव जाता तो दादी अपने झोले में एक पीतल का लोटा और चार- पाँच हाथ की पतली सी सूत की रस्सी रखना नहीं भूलती. वो इसलिए कि रास्ते में प्यास लगने पर किसी कुएँ से पानी निकाला जा सके.

कहने का आशय यह है कि 1970-72 के आसपास पानी इतना ऊपर था कि पानी निकालने के लिए चार-पाँच हाथ की रस्सी ही पर्याप्त थी और सन नब्बे के आते-आते पानी 300 फुट गहरे उतर चुका था.

जो आज 45-50 की उम्र के हैं, उनके अनुभव में यह बात होगी लेकिन नयी पीढ़ी के लिए जैसे कोई कहानी !

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